ज्यों जग बैरी मीन को आपु सहित बिनु बारि।
त्यों तुलसी रघुबीर बिनु गति आपनी बिचारि।।
~ संत तुलसीदास
आचार्य प्रशांत: तुलसी का अंदाज़ ज़रा नर्म है। वो इतना ही कह रहे हैं कि मीन का समस्त जग बैरी है, यहाँ तक कि वे स्वयं भी अपनी बैरी है। वो कह रहे हैं, “वे स्वयं भी अपनी बैरी है।” मैं कहता रहा हूँ कि, “वे स्वयं ही अपनी बैरी है।”
तुलसी का कहना ये है — पूरी दुनिया तो मछली को मारने के लिए लालायित है ही, तो पूरी दुनिया तो उसकी दुश्मन है ही, वह ख़ुद भी अपनी दुश्मन है, क्योंकि काँटे की तरफ़ वह ख़ुद ही तो भागती है।
मैं कह रहा हूँ, वह काँटे की तरफ़ न भागे तो कोई उसका दुश्मन कैसे हो सकता है? तो अगर बात को और मूल, और गूढ़ रूप से पकड़ा जाए तो वह स्वयं ही अपनी दुश्मन है।
रघुबीर से तुम्हारी दूरी संसार के कारण नहीं है, तुम्हारे ही कारण है। तुम्हें अच्छा बहाना मिल जाता है, तुम कह देते हो कि, “दुनिया के प्रलोभनों ने हमें राम से दूर कर दिया।” दुनिया के प्रलोभनों ने तुम्हें नहीं दूर कर दिया राम से। दुनिया को दोष देकर तो तुम अपने-आपको ताक़त दे रहे हो। तुम कह रहे हो, “दुनिया ने मुझे फँसाया है और अब मैं दुनिया से आज़ादी हासिल करूँगा।” राम तो इस हिसाब में कहीं हैं हीं नहीं। तुम कह रहे हो, “अपनी आज़ादी का अभियंता मैं स्वयं बनूँगा,” राम तो इस हिसाब में कहीं हैं हीं नहीं। जब तुम्हें ये दिखाई भी पड़ जाता है कि तुम्हें दुःख दुनिया की वजह से है, तो तुम मुक्ति का जानते हो क्या साधन चुनते हो? क्या? ‘मैं’। पहले तो तुम्हें ये समझ में आता ही नहीं कि तुम्हें दुःख दुनिया से है। तुम्हें लगता है कि तुम्हें सुख दुनिया से है। तुम दुनिया को सुख का अवसर मानते हो। तुम कहते हो कि, “यही वो जगह है जहाँ से कुछ हासिल किया जा सकता है। ये मुझे खुला मैदान दे दिया गया है, यहाँ से कुछ लूटा जा सकता है। किसी चीज़ का भोग हो जाएगा, कुछ हासिल कर लूँगा, उपभोग का मैदान है दुनिया।” ये तुम्हारी धारणा रहती है। जब बहुत पिट लेते हो, तो इतना समझ में आता है कि दुनिया सुख उतनी है नहीं, जितना दुःख है। लेकिन उतना पिटने के बाद भी बुद्धि शुद्ध होती नहीं। उसके बाद तुम्हारा तर्क उठता है कि, “दुनिया ने मेरे साथ बुरा किया, अब मैं दुनिया को पछाड़ के अपने साथ भला करूँगा।” तुम अपने तारणहार स्वयं बनने लग जाते हो। अब ये बड़ा उपद्रव है। पहला चरण तो ये कि तुम्हें समझ में ही न आए कि दुनिया में फँसे हुए हो। दूसरा ये कि समझ में भी आए कि दुनिया में फँसे हुए हो तो छूटने के लिए अपनी ही बुद्धि लगाते हो। और बुद्धि तुम्हारी कितनी ज़बरदस्त है, इसके प्रमाण तुम स्वयं हो। अपनी हालत देखो, लेकिन बुद्धि पर से भरोसा छूटता नहीं। तो इसीलिए तुलसी की बात बहुत क़ीमती है। वह कह रहे हैं कि, “तुम ये मत मानना कि दुनिया तुम्हारी दुश्मन है, दुनिया नहीं तुम्हारी दुश्मन है, तुम स्वयं अपने दुश्मन हो। एक बार तुमने ये मान लिया कि तुम स्वयं अपने दुश्मन हो, उसके बाद तुम्हारे मन से ये ग़ुरूर जाता रहेगा कि तुम्हारे हाथों तुम्हारी मुक्ति हो सकती है।”
तुम्हें मुक्ति तो चाहिए, लेकिन तुम्हें अपने हाथों अपनी मुक्ति चाहिए, इसीलिए तुम्हें मुक्ति मिलती नहीं। मुक्ति की जगह तुम्हें मिल जाता है काँटा। काँटे की ओर भी जब मछली बढ़ती है तो मुक्ति के लिए ही तो बढ़ती है — “भूख से मुक्ति मिलेगी।”
“काँटे से भोजन लटकता है, कीड़ा लटकता है, तो क्या देगा वो मुझे? भूख से मुक्ति।”
तुम्हें अपने पर इतना भरोसा है, तुम अपनी बुद्धि के इतने पक्के हो कि तुम कहते हो, “ठीक, अपना उद्धार आप कर लूँगा। मैं तय करूँगा कि क्या उचित है, क्या अनुचित। राम की पुकार का क्या मोल! हमें पता है कि हमें क्या करना चाहिए। हम तय करेंगे।” और तुम तय यही करते हो कि बढ़िया खाना लटक रहा है — “आ हा हा हा हा।” मछली चली भोजन करने! जब भोजन करने चलती होगी तो अपनी दृष्टि में तो महारानी ही होती होगी। कर लिया मैदान फ़तह! मछली रानी चली भोजन करने, और काँटा आया है भोजन ले करके। लटक रहा है काँटा और मछली रानी जा रही हैं उसकी ओर। सब कुछ है यहाँ पर, बस राम नहीं हैं। राम को बड़ी सुविधा से भुला दिया गया है। तुलसी मछली से कह रहे हैं, “मछली, तेरे पास तू इतनी ज़्यादा है कि अब तेरे पास राम नहीं हो सकते। तेरे पास तू इतनी ज़्यादा है कि तेरे पास राम नहीं हो सकते। तुझे तो काँटा मुबारक हो और काँटे से लटकता कीड़ा मुबारक हो। तू जा! ” संसार की विपत्तियों से बचने की प्रार्थना बाद में किया करो; रोज़ सुबह, एक प्रार्थना बताए देता हूँ, वो कर लेना — “हे राम! मुझे मुझसे बचा! हे राम! मुझे मुझसे बचा!” हे राम! मछली रानी का प्रार्थना का भी मन नहीं है, कीड़ा ही दिखाई दे रहा है। “हे राम! मुझे मुझसे बचा।” बाहर वाले कितना नुक़सान पहुँचा लेंगे तुमको? बाहर वालों की ज़रूरत क्या है? तुम ख़ुद काफ़ी नहीं हो?
“हे राम! मुझे मुझसे बचा।”
जीवन में कष्ट आजाएँ और विपत्तियाँ हावी होने लगें तो एक बात तय जान लीजिएगा: आपने बहुत भरोसा रखा है अपने पर कि, “विपत्तियों से पार हो जाऊँगा।” आपको ‘प्रयत्न’ पर और ‘पुरुषार्थ’ पर पूरा भरोसा रहा है, प्रार्थना पर नहीं। जब भी हारने लगें, पक्का जान लीजिएगा — ख़ुद से हार रहे हैं। आपके ख़िलाफ़ आप ही खड़े हुए हैं। राम की क्या रुचि है आपको हराने में? राम तो आपकी जीत हैं, और आप तब भी बार-बार हारे जाते हो, पग-पग ठोकर खाते हो, तो क्या स्पष्ट ही नहीं है कि आपको हरा कौन रहा है?
परमात्मा के बच्चे हो अगर तो तुम्हें हराने में उसकी कोई उत्सुकता है? लेकिन हारते तुम प्रतिपल हो। रोज़ मार खाते हो। मुँह सूज कर गोल गप्पा हुआ है। न राम, न राम की क़ुदरत तुम्हें पीटने पर उतारू है; तुम ही हो अपने दुश्मन। अपने से दुश्मनी सबसे बड़ी यही होती है कि — अपने पर भरोसा और राम की अनदेखी। इतना बड़ा समुद्र दिया है राम ने, वो मछली को पूरा नहीं पड़ता। वो किधर को भागती है? कि, “वो काँटे से कीड़ा लटक रहा है, वो पा लूँ।” दुःख के समय, पहली बात तो संसार को दोष मत देना। दूसरी बात, राम को दोष मत देना। संसार निरपेक्ष है। संसार को तुम्हारे सुख से कोई मतलब नहीं, उसे तुम्हारे दुःख से भी कोई मतलब नहीं। बारिश हो रही है, एक घर में एक बच्चे का जन्म हो रहा है, बगल के घर में किसी की मृत्यु हो रही है। बारिश दोनों घरों पर हो रही है। सूरज की रोशनी और धूप पड़ रही है, उसी धूप से नए अंकुर फूट रहे हैं, नए पत्ते जन्म ले रहे हैं, और उसी धूप से कोई प्यासा मर रहा है। संसार निरपेक्ष है। और राम का तुमपर प्रेम है। तुमपर प्रेम न होता तो तुमको ऐसे संसार में नहीं भेजा होता जहाँ तुम जी पाते। तुमपर प्रेम न होता तो तुमको जगने के बाद रात की नींद नहीं मिलती। तुम्हें बिना कुछ करे नींद आ जाती है न? कभी कल्पना करी है उस ख़ौफ़ की कि अगर लगातार जगना ही पड़े तो क्या होगा? अगर और कुछ नहीं सूझता तुम्हें तो तुम्हारी नींद ही बहुत बड़ा प्रमाण है इसका कि राम को प्रेम है तुमसे। वो सुला देता है तम्हें, तुम कोई भी हो। संत भी सो जाता है, मूर्ख भी सो जाता है।
संसार निरपेक्ष है। राम को तुमसे प्रेम है। फिर बताओ, तुम्हारा दुश्मन कौन?
संसार को तुम्हारे दुःख से कोई लेना-देना नहीं, और राम तुम्हारे दुःख का अंत हैं। दुःख लेकिन फिर भी तुम्हें बना हुआ है, बताओ कारण कौन? तुम, संसार, या विधाता? पर तुम्हें तो दुःख आता है तो तुम दो ही बातें बोलते हो, “अरे संसार, ये तूने क्या किया!” या फिर कहते हो, “अरे भगवान, ये तूने क्या किया!” दुःख में कभी रोते हो कि, “हाय राम! ये मैंने क्या किया”? और जब कभी यदा-कदा रो लेते हो कि, ‘’हाय राम! ये मैंने क्या किया!,’’ तो पाते हो कि दुःख छटने लगा है।
प्र: ख़ुद पर इतना भरोसा कैसे आता है?
आचार्य: मूर्ख हो। अभी कम पिटे हो। तुम्हारा सवाल वैसा ही है कि कोई गेंदबाज़ एक ओवर में छह छक्के कैसे खा सकता है? एक खाना समझ में आता है, दो खाना समझ में आता है, और दस गेंद होतीं अगर, तो छह खाना भी समझ में आता है, क्या पता सातवीं पर आउट हो जाए? पर छह ही हैं और छह-की-छह पर खा रहा है! भरोसा बहुत होगा उसे अपने आप पर।
बल्लेबाज़ को श्रेय नहीं दिया जा सकता क्योंकि बल्लेबाज़ तो वही था जब अन्य गेंदबाज़ भी थे। औरों को तो नहीं मार पाया वो। तो बल्लेबाज़ को नहीं दे सकते श्रेय। बल्लेबाज़ की तारीफ़ है, लेकिन श्रेय तो गेंदबाज़ को है। बल्लेबाज़ को तालियाँ मिलेंगी, लेकिन स्वर्ण हार तो इस गेंदबाज़ को ही मिलना चाहिए जो हर बार गेंद डालता है और छक्का ही खाता है। और फिर भी वही गेंद डाले जा रहा है, भरोसा बहुत है इसे, या फिर हद दर्जे का बेशर्म है — “मार जाइत है, लजाइत नाहि।”
इसके अतिरिक्त और कोई कारण क्या बताएँ? और बहुत तुम अपने-आपको अगर मर्यादित उत्तर ही देना चाहते हो, तो कह दो कि, “लीला है। कोई पिटेगा नहीं तो मनोरंजन कैसे होगा? हर कहानी में एक विदूषक का होना ज़रूरी है, हर खेल में कोई पिटने वाला होना चाहिए।”
एक अंग्रेज़ी कवि ने कहा है — “वी आर टू द गॉड्ज़ एस फ़्लाईज़ आर टू वॉनटन बोईज़, दे किल देम फ़ॉर दीयर स्पोर्ट।” हम देवताओं के लिए वो हैं जो छोकरों के लिए मक्खियाँ होती हैं, वो उन्हें मज़े के लिए मारते हैं। छोकरे जैसे मक्खियों को मज़े के लिए यूँ ही मार देते हैं, हम देवताओं के लिए वो हैं। तो ये कह लो कि इसीलिए पिटते हो, इसीलिए भरोसा है। भीतर से लाज जगनी चाहिए, शर्म आनी चाहिए कि, “रोज़-रोज़ एक ही घटना घटती है मेरे साथ — ढाक के तीन पात! किसी को मुझसे पूछने की ज़रूरत ही नहीं कि, ‘आज की ताज़ा ख़बर क्या है?’ मेरा मुँह समाचार पत्र है जिस पर कभी ख़बर बदलती नहीं, तारीख़ भर बदलती है। ख़बर एक ही है, क्या? फिर पिटे!” तुम प्रार्थना करो कि कोई तुम्हें मिले जो तुम्हें न पिटने के स्वाद से अवगत कराए। हो सकता है कि पिटना तुम्हारी आदत बन गयी हो, हो सकता है राम तुम्हारे मन में इतना पीछे छूट गए हों कि तुम्हें ज़रा-भी स्मृति, ज़रा चिन्ह बाकी न हो। न पिटने में कुछ पल गुज़ारो। आदमी के मौलिक गौरव को ज़रा अनुभव करो। जानो कि गौरव में भी जिया जा सकता है, सम्मान में भी जिया जा सकता है। जीवन हार और यंत्रणा की अनवरत श्रृंखला हो, ज़रूरी नहीं है। तुम्हारे भीतर बड़ा भरोसा बैठ गया है कि पिटना तो है ही। तुम्हें कुछ मौके चाहिए, कुछ दिन, कुछ माहौल, कुछ अवसर जहाँ तुम न पिटो, तो तुम्हारा फिर भरोसा खंडित होगा।
दुःख समय, पहली बात तो संसार को दोष मत देना दूसरी तुम्हारे कोई मतलब नहीं, उसे तुम्हारे दुःख भी कोई नहीं। बारिश रही एक घर एक का जन्म रहा बगल के किसी की मृत्यु रही है।